यह तो विदित है
कि मैं किशोरी नहीं
युवा हूँ, वृद्धा हूँ या अधेड़ा!
सलीब पर लटकी मेरी हर सुबह
कचोट जाती है सर्वत्र मेरा
मेरे पास
किशोरावस्था के प्रश्नों का
एक अनछुआ खजाना है
जिसके उत्तर मुझमें होम हो गए हैं
वो प्रश्न जो कभी
मीठा दर्द देते थे
सर्प बनकर
मुझको डस रहे हैं
कहाँ से लाऊं एक सपेरा!
काश मैं जल से निकली
मछली होती
या शाख से टूटी एक कली
जलती एक शमा होती
या भटकी एक बूंद अकेली
तब शायद में, मैं ना होती
चंद क्षणों की
तड़पन के बाद
मुक्त हो चुकी होती
लेकिन नहीं!
शायद यही मेरी नियती है
स्वयं को पहचानना भी
एक अनबूझी पहेली है
मैं कौन हूँ?
युवा हूँ?
नहीं, मैं युवा नहीं हूँ
युवा होती तो
केंद्र को पाने के लिए
परिधि पर ना घूम रही होती
केंद्र पा चुकी होती
मैं युवा नहीं हूँ
वृद्धा हूँ?
नहीं, मैं वृद्धा भी नहीं हूँ
वृद्धा होती तो
ओस का स्पर्श पाने के लिए
हवा बन बहती
सूर्य की तपन न बन जाती
नहीं-नहीं
मैं वृद्धा भी नहीं हूँ
अधेड़ा?
तो क्या मैं अधेड़ा हूँ?
नहीं, मैं अधेड़ा भी नहीं हूँ
अधेड़ा होती तो
युवा और वृद्धावस्था को
एक साथ आत्मसात कर रही होती
तृप्त हो चुकी होती
नहीं-नहीं
मैं अधेड़ा भी नहीं हूँ
तो फिर मैं कौन हूँ?
ना युवा! ना वृद्धा! ना अधेड़ा!
शायद मैं इन तीनो को
एक साथ जी रही हूँ
घर से बाहर युवा,
घर पर अधेड़ा
और बिस्तर पर वृद्धा…