हर चमन में इश्क-ए-गुल कहाँ खिलता है
जहाँ उम्मीद हो इसकी कहाँ मिलता है
क्यों डरें हम इश्क़ के अजब इम्तहानों से
बिना तपे आग में सोना कहाँ खिलता है
जिसने न माना इश्क़ को अपना ख़ुदा यारों
वो ज़िन्दगी भर यहां खाली हाथ मलता है
इश्क़ रहमत है मिलती है रब के करम से
रब तो सिर्फ इश्क वालों को ही मिलता है
ठुकराया जिसने भी इश्क़ अपने यार दा
वो गीली लकड़ी सा यहां धुआँ-धुआँ बलता है
इश्क़ मुकम्मल है गर आग दोनो तरफ लगी हो
शमा के साथ-साथ परवाना भी जलता है
इश्क़ फकीरी है और इश्क़ हि बादशाही
इश्क़-ए-जहाँ में कोई रुतबा नहीं चलता है
इश्क वालों पे चढ़ी रहती है हर पल इश्क़-ए-ख़ुमारी
उनका पल पल बेख़ुदी में निकलता है
होंगे बेशुमार तुम्हारे रहनुमा मगर
इश्क़ ‘राजा’ का रब के साथ ही चलता है
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