कहते हैं तुम्हारी नेकी
किसी न किसी दिन
किसी न किसी रूप में
तुम तक जरूर वापस आती है
मुझे अपनी नेकियों की वापसी का
इंतज़ार नहीं
मैं तो खुशनसीब होता
अगर मेरी नेकी हर बार
दरिया में डल जाती
मगर मेरी नेकी
न तो मुझ तक वापस आती है
न ही दरिया मे जाती है
अपितु हर बार
सर्प बन
मुझे ही डस जाती है
और मैं बेबस लाचार
जमीन पर पड़ा
माटी मे सना
अपना नीला ऐंठता जिस्म लिए
जहर से बंद होती पलकों को
खोले रखने की
नाकामयाब कोशिश करता हुआ
मुँह से झाग उगलता रहता हूँ
इस इंतज़ार में
कि शायद कोई आये
और मेरा मानवता पर से
विश्वास उठने से पहले ही
मुझे इस दर्द से मुक्ति दिलाये
मुझे किसी
देहधारी इंसान की तलाश नहीं
और न ही सर्वशक्तिमान
परमेश्वर का इंतज़ार
मैं तो पुकार रहा हूँ
अपनी ही आत्मा मे खोये
उस पूर्ण सत्य को
जो मुझ जन्मांध की लाठी बनकर
मुझे वहाँ ले जाए
जहाँ सुख और दुःख
आत्मा और परमात्मा का
एक ही बिंदु मे विलय होता हो
तब शायद!
मुझमें
इतनी शक्ति आ जाए
कि मैं अपनी ही नेकियों के
डसे हुए सर्प का दर्द
बिना मुँह से झाग निकाले
हँसते-हँसते
परमानन्द के साथ
सह सकूं
और पल-प्रतिपल
क्षण-प्रतिक्षण
इंतज़ार में रहूँ
किसी नये सर्प के डसने का
जो शायद मुझे डसने के बाद
आदमी बन सके…
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