क्यों तुम मुझमें अपना ख़ुदा ढूढ़ते हो
आप भी न जाने ये क्या ढूढ़ते हो
मुझको तो अपनी ही खबर नहीं आती
और तुम मुझमें खबर-ए-जहाँ ढूंढते हो
रात भर भटका हूं बेघर आवारा
और तुम मुझमे औरो का मकां ढूढ़ते हो
भटके हो सारी दुनियां मुझे ढूढ़ने मे
देखा नहीं बगल मे और जहाँ ढूढ़ते हो
धोखे मे रखा तुमने उम्र भर सभी को
इस मोड़ पे कौन सी वफ़ा ढूढ़ते हो
फतेह करली तुमने मंज़िले जहाँ की
अब कौन से सपनो का मकां ढूढ़ते हो
ना कद्र की तुमने वक़्त की कभी भी
अब कौन सा सुहाना समाँ ढूढ़ते हो
उम्र सारी गुज़री अपने ही रंजो-गम में
अब कौन सा सुकूं का लम्हाँ ढूढ़ते हो
चुप हूँ मैं आजकल कोई बात नहीं करता
तुम मुझमे अपनी ही जुबाँ ढूढ़ते हो
भुला दिये मैंने सब गुनाह तुम्हारें
तुम मुझमे मेरी ही खता ढूढ़ते हो
ढूंढ सको तो ख़ुद को ढूंढ के तुम दिखा दो
रब को ना जाने तुम कहाँ-कहाँ ढूढ़ते हो
रब है तुम्हारे अंदर इक नजर तो डालो
क्यों मंदिर मस्जिद हर दुकां ढूढ़ते हो
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