अश्क़ बहते नहीं अब तेरी बेफावाई में
हम तो खुश रहते हैं उस रब की रज़ाई में
दूर रहकर भी हम सुकूँ तालाश लेते हैं
ख़लिश उठती नहीं अब तेरी जुदाई में
यक़ी आता नहीं तुमको तो छोड़ दो हमको
कुछ और कहना नहीं हमें अपनी सफाई में
तुम सुकूँ से जिओ हम कतरा सुकूँ तरसें
हरगिज़ मंज़ूर नहीं यूँ जीना आशनाई में
हम तुम्हें सोचें तुम सोचो किसी और को
ऐसे भी क़ोई जीता हैं इतनी बेहयाई में
लेते हैं लोग मज़ा अब मेरी बेबाकी का
नाम जब भी हम लेते है तेरा दुहाई में
हम भी सोचें क्यों अच्छे न हुए अब तक
कुछ तो मिलाया है तुमने मेरी दवाई में
जब तलक ताल ना मिले नहीं नाचते हम
उमर बेताला नाचे है हम तेरी तिहाई में
धोखे खाना कोई दुश्वार नहीं है हमको
ना होंगे खाक हम अब तेरी हरजाई में
लुभाता नहीं अब हमें दिलकशों का हज़ूम
कुछ नहीं रखा पत्थरों से दिल लगाई में
हर गुनाह तेरा मैं अपने सर पे ले लूं
यही तो कहते रहे तुम मेरी हर रिहाई में
रात भर जागने से गुरेज नहीं हैं हमको
कर लेते हैं नींद हम पूरी इक जम्हाई में
दिखते नहीं किसी को ये ज़ख्म हमारे
सब दफना दिए हैं इस दिल की गहराई में
आईने में देखो कभी तुम अपना चेहरा
मुरझा सा गया है अपनी ही लगाई में
तुम सुकूँ से जिओ हम कतरा सुकूँ तरसे
हरगिज़ मंज़ूर नहीं यू जीना आशनाई में
मुफलसी मैं क्यों मेरे दुश्मन जिए
राजा तो अब जिएगा अपनी शहनशाई में
*ख़लिश- चुभन, कसक
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