अश्क बहते हैं सारी रात कि तुम आ जाओ
आंसुओं की है बरसात कि तुम आ जाओ
तेरे ख़्यालों की स्याही से लिखूं खत तुझको
कितना तुझको मैं करूं याद कि तुम आ जाओ
ये शाम की तन्हाई मेरा दम ले लेगी
कितना दीवारों से करूं बात कि तुम आ जाओ
गूंजने लगी है कानो में मेरे अब शहनाईयाँ
चली अरमानो की है बारात कि तुम आ जाओ
गुलों पे किस के है ये अश्क़ यूं ही बिखरे हुए
चाँद भी रोया है मेरे साथ की तुम आ जाओ
कब होगा दीदारे-यार म्यस्सर मुझको
आज बस में नहीं जज़्बात कि तुम आ जाओ
इक उम्र का फासला है दरमियाँ हमारे
मोला दीखा कोई करामात कि तुम आ जाओ
आखिरी हिचक ‘राजा’ आ ही ना जाये
बिगड़ते जाते है हालात कि तुम आ जाओ
*सुर्ख़- लाल जैसे—सुर्ख़ गाल
*मयस्सर- मिलता या मिला हुआ, प्राप्त, उपलब्ध
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