शाम-ए-सफर

शाम-ए-सफर

शाम-ए-सफर में गर हमनशी का साया भी हो
ज़िन्दगी यूं ही सफ़र में गुज़ार दू मैं

 

किसे फ़िक़्र मंज़िल मिले न मिले 
चंद लम्हे तेरे संग गुज़ार लू मैं

 

दोनों जहाँ की जन्नत हैं तेरे कदमो में 
इस जन्नत पे हर जन्नत निसार दू मैं

 

भूल कर भी तू मुझें भुला न सके 
आ तुझे आज इतना प्यार दू मैं…

 

हर अलफ़ाज़ तेरा खुदा का नगमा है
इन नगमो पे ख़ुदाई भी वार दू मैं

 

तेरा दीदार करमगर हो न हो ‘राजा’
तेरा तसव्वुर ही साँसो में उतार लू मैं

G041

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