थका नहीं हूँ मैं (भाग-1)

थका नहीं हूँ मैं (भाग-1)

थका नहीं हूँ मैं आज भी
उम्र पकने के बाद भी
दुनियादारी से, लाचारी से, बीमारी से

 

दौड़ता हूँ मैं आज भी
उम्र पकने के बाद भी
बादलों के संग, मन में उमंग,
लूटता कटी पतंग
जो मेरे सब गम भुला देती है
और मुझे मुस्कुराहने की वजह दे जाती है

 

देखता हूँ मैं आज भी
उम्र पकने के बाद भी
कुदरत के नज़ारे
टूटते सितारे
पेड़ों पे लटके चिड़ियो के
घोसलें प्यारे-प्यारे
जिसमे कभी चिड़िया के बच्चे
और कभी उसके अंडे दिख जाते हैं
इनमे से एक अंडे में से
मेरा हर रोज जन्म होता है
जो आज भी
अपनी माँ की चोंच से
दाना चुगने को बेताब रहता है
और अक्सर

दाना चुगने के बाद
अपनी माँ के पंखो के नीचे
सुकून से सो जाता है

 

सुनता हूँ मैं आज भी
उम्र पकने के बाद भी
वही गीत पुराने
जिन्हे सुने कई बार तो
हो जाते हैं ज़माने
अकेले में मैं आज भी
वही गीत गुनगुनाता हूँ
जो मेरे मन के संगीत को
जिन्दा रखे हुए हैं
और मेरे सुर बन के
मेरी रग रग में बस चुके हैं
मेरी आवाज अब मेरे गले से
बाहर नहीं निकलती
दुनिया के लिए वो खो रही है
मेरी आवाज़ के आशार
मेरी ज़ुबान कि
तहज़ीब बन चुके हैं
जो सिर्फ मुझे सुनाई देती है
और आज कल में
अपने मन कि आवाज़
सुनने लगा हूँ

 

महसूस करता हूँ मैं आज भी
उम्र पकने के बाद भी
बरसात के बाद

आसमां से उतरे इंद्रधनुषी रंग
जो मैं अपनी आँखों में भर लेता हूँ
और रात को सारे रंग
अपने तकिये के नीचे
रखकर सो जाता हूँ
जो मेरे सपनो क़ो
रंगीन बना देती हैं
और मेरी आँखों कि
रोशनी बड़ा देती हैं

 

सुनता हूँ मैं आज भी
उम्र पकने के बाद भी
मेरे अपने रहनुमा
दिल से निकले कहकहा
पक्षियों की चहचहा
जो मेरे मन को
सुकून देती है
मेरी हर चाहत को
पूरा करती हैं
और मेरे जीने का
सामान बन जाती हैं…

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