एक वह भी जमाना था
जब हम चाँद सितारों के पास
अक्सर घूमते-घूमते
निकल जाया करते थे
कभी अपने जिस्म को
साथ ले जाते
कभी घर छोड़ जाया करते थे
कुछ इधर की, कुछ उधर की
बातों को एक ही हांडी में
पकाया करते थे
तब चाँद बेदाग था
लोगों का तो नहीं कह सकता
लेकिन मेरा तो यही विश्वास था
ज़िन्दगी का तो पता नहीं!
किन्तु कुछ क्षणों का ही सही
साथ तो था
फिर एक दिन
चाँद, ईद-का-चाँद हो गया
उसका एक-एक क्षण
कहीं खो गया
मैंने उसको ढूंढा, बहुत ढूंढा
वो मुझे कहीं नज़र ना आया
फिर एक दिन अचानक
मुझे बादलों के पीछे
उसकी झलक दिखाई दी
मगर उसकी चाँदनी
कहीं खो गयी थी
उसका आकार
रोज घटने और बढ़ने लगा
उसके दामन पर
कुछ अनदेखे निशान
स्पष्ट झलकने लगे
अब जब भी मैं
घूमते-घूमते
चाँद के पास जाता
मैं वहाँ पहले वाला चाँद
ढूंढता ही रह जाता
अब चाँद
ना तो मुझसे बातें करता
ना मुझे देख मुस्कुराता
अपितु मुझसे नजरें चुराने लगता
अब उसकी चाँदनी में
ठंडक की जगह,
तपन ने ले ली थी
जिस से मेरा जिस्म जलने लगता
मेरे दिमाग़ की नसें फटने लगती
मेरा उस आग में
सांस लेना भी दूभर हो जाता
मैं वहां से भागता-भागता
और तेज भागता
किंतु कुछ क्षणों बाद
बिना अपने जिस्म की परवाह किए
फिर उस आग की ओर
खिंचा चला जाता
लेकिन जब भी मैं
उस आग में जाता
अपने जिस्म का
एक हिस्सा जला आता
शायद यही एक रास्ता ढूंढा था!
मैंने मोक्ष का
स्वयं को आत्मदाह करके
अपने अंगों की
एक-एक करके
तृष्णाओं के हवन कुंड में
पूर्णाहुति देने का
मेरी बदकिस्मती
मेरे सारे अंग तो भस्म हो गए
लेकिन मैं फिर भी ज़िन्दा रहा
मोक्ष चाहता था त्रिशंकु हो गया
दुनिया और देवताओं के बीच
अधर में खो गया
शायद!
मैं अब भी
मोक्ष की तलाश में हूँ…