ज़िन्दगी आराम का, सामान बन के रह गयी
आरजू इक घर की थी, मकान बन के रह गयी
उड़ते थे खुले आसमां, जब पँख पखेरू ना थे
पँख आए तो पिंजरे की, उड़ान बन के रह गयी
करनी थी अता नमाज, हरेक शक्श के वास्ते
पढ़ी नमाज़ तो नमाज़, अज़ान बन के रह गयी
इक वो भी ज़मान था, जब रास्ते कम ना थे
आज इक बंद गली का, मकान बन के रह गयी
जिंदगी तूने जानने के, मौके तो बहोत दिए
हममे ही कमी थी जो, अंज़ान बन के रह गयी
कोशिशे तो बहोत की, कि दुनियादारी सीख लें
जिंदगी है कि हमारी नादान बनके रह् गई
सपने भी टूटे मगर, हमने कभी सौदा ना किया
आज टूटे सपनो की, दूकान बन के रह गयी
सुनने थे किस्से हमने, सब तेरी हरजाई के
तू तो है कि गूंगे की, जुबान बन के रह गयी
हौसले बुलंद इतने की, तारे भी तोड़ लाएंगे
आज ये बढ़ती उम्र की, थकान बन के रह गयी
ये ताकत-ए-मुश्ताक, हममे भी गज़ब की थी
वक़्त ऐसा बदला क़ी, बेजान बन के रह गयी.
निशानेबाजी इस कदर, की आसमां भी भेद दे
आज ये बिना तीर के, कमान बन के रह गयी
कटे हाथ उनके जिसने, भी बनाया ताजमहल
मोहब्बत भी इक जुल्म-ए-दास्तां बन के रह गयी
जानते थे तुझे जिंदगी, हम बहुत अच्छी तरह
तूने नज़रे यु पलटी कि अनजान बन के रह गयी
ज़िन्दगी हमारी किसी, गुलिस्तां से कम ना थी
चमन ऐसा उजड़ा की, शमशान बन के रह गयी
हम भी किसी सियासत के, हुकमन हुआ करते थे
आज ये गुज़रे वक़्त के, निशान बन के रह गयी
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