हर आदमी अकेला, परेशान बहुत हैं
इस शहर में दोस्त कम, अनजान बहुत हैं
आदमी को कामिल नहीं, कतरा भी सुकून
उसके पास आराम का, सामान बहुत है
महफ़िलो में नाचता, फिरता ये आदमी
उसके अन्दर गहरा, सुनसान बहुत है
गुमशुदा ये आदमी, अपनी तलाश मे
अपनी हि पहचान से, अनजान बहुत है
नहीं पहचाना ख़ुद को, जब आईना देखा
मगर उसकी लोगो में, पहचान बहुत हैं
अपनी ही नजरों में, गिरता ये आदमी
मगर उसकी ऊची, ऊड़ान बहुत है
आदमी क़ो हासिल नहीं, इक टुकड़ा जहाँ
यु तों कहने को यहां, आसमान बहुत हैं
दो गज जमीन भी ना, कामिल हो जिसे
उसके अन्दर बैठा, शमशान बहुत है
धोखा देते हैं अपने, ही जहां हर कदम
गैरों ने किए हम पर, अहसान बहुत है
दोस्तों ने गर्दीशो में भी साथ ना छोड़ा
हमें अपने दोस्तों पे, गुमान बहुत है
थका हारा आदमी, कब तक निभाएगा
उसे टूटे रिश्तो की, थकान बहुत है
जहा हर कोई ख़ुद को, अपना ख़ुदा माने
ऐसे गलियों में घूमते, भगवान बहुत है
दुसरो की कब्र पे, अपना मकां बनाते
ऐसे शहर में रहते, हैवान बहुत है
जिसके अंदर का आदमी, घुट के मर जाए
अपनी ही रूह से वो, अनजान बहुत है
गरीबो का लहूँ से, अपनी जमीं सींचते
ऐसे इस शहर मे, धनवान बहुत है
खून के रिश्ते भी जहा, दूरियो बन जाये
‘राजा’ ऐसे रिश्तो से, परेशान बहुत है
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nice one
great