ज़िन्दगी

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी तू क्यूँ रेत बन गयी
मैं जब-जब तुझे
अपनी मुट्ठी में भरकर
मनचाहा आकार देना चाहता हूँ
तू रीत जाती है

 

क्या मेरा तुझ पर
इतना भी अधिकार नहीं
कि तुझे, जिसे मैंने
जन्म से लेकर अब तक
अपने कमजोर कांधो पर ढोया है
उसे एक बार
सिर्फ एक बार
अपने मनचाहे
आकार में ढ़ाल सकूं

 

लेकिन नहीं!
तू तो प्रेमिका से भी बेवफ़ा है
वो कुछ पल तो प्यार के देती है
चाहे झूठे ही सही
लेकिन तू!

 

जब कभी भी तन्हाई में
तुझसे गुफ़्तगू करता हूँ
तू शास्त्रार्थ पर उतर आती है
मेरी हर बात को

अपने निराले ढंग से
काटने की कोशिश करती है

 

में पूछता हूँ
क्या दिया है तूने मुझे!
क्यूँ ढोता रहूँ तुझे!
तू कहती है
कर्म ही जीवन है
में फिर पूछता हूँ
कर्म ही तो सर्वोधार नहीं!
तू कहती है
अपना-अपना कर्म है

 

तेरी ये बड़ी-बड़ी बातें
मेरी छोटी समझ से परे है
मैं तो सिर्फ़ इतना जानता हूँ
कि मैं शिव नहीं
जो तुझे कंठ में ही रोके रखूँ
और न ही कृष्ण
जो तेरे फन पर चढ़कर
लीला लील सकूं
विष्णु बनकर तुझ पर शय्या सजाना
तो मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकता

 

अरे मैं तो इक सीधा-साधा इंसान हूँ
जो अपने तरीके से
तुझे जीना चाहता हूँ
लेकिन तू!
तू तो मेरे कमजोर कांधो पर
चढ़कर बैठ गयी

और मैं बेबस लाचार
तुझे ढोये चले जा रहा हूँ
तेरी सवारी बन गया हूँ

क्यूँकि
ऐ ज़िन्दगी!
मैं जानता हूँ
कि तू वो है
जिसके आगे
सबको हारना पड़ता है
हम सबको हारना पड़ता है…

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