ज़िन्दगी

ज़िन्दगी तू क्यूँ रेत बन गयी
मैं जब-जब तुझे 
अपनी मुठ्ठी में भरकर 
मनचाहा आकार देना चाहता हूं
तू रीत जाती है
 
क्या मेरा तुझपर 
इतना भी अधिकार नहीं
की तुझे जिसे मैंने 
जन्म से लेकर अब तक 
अपने कमजोर कांधो पर ढोया है 
उसे एक बार
सिर्फ एक बार 
अपने मनचाहे 
आकार में डाल सकू

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