कविता
ज़िन्दगी तू क्यूँ रेत बन गयी
मैं जब-जब तुझे
अपनी मुट्ठी में भरकर
मनचाहा आकार देना चाहता हूँ
तू रीत जाती है
क्या मेरा तुझ पर
इतना भी अधिकार नहीं
कि तुझे, जिसे मैंने
जन्म से लेकर अब तक
अपने कमजोर कांधो पर ढोया है
उसे एक बार
सिर्फ एक बार
अपने मनचाहे
आकार में ढ़ाल सकूं
लेकिन नहीं!
तू तो प्रेमिका से भी बेवफ़ा है
वो कुछ पल तो प्यार के देती है
चाहे झूठे ही सही
लेकिन तू!
जब कभी भी तन्हाई में
तुझसे गुफ़्तगू करता हूँ
तू शास्त्रार्थ पर उतर आती है
मेरी हर बात को
अपने निराले ढंग से
काटने की कोशिश करती है
में पूछता हूँ
क्या दिया है तूने मुझे!
क्यूँ ढोता रहूँ तुझे!
तू कहती है
कर्म ही जीवन है
में फिर पूछता हूँ
कर्म ही तो सर्वोधार नहीं!
तू कहती है
अपना-अपना कर्म है
तेरी ये बड़ी-बड़ी बातें
मेरी छोटी समझ से परे है
मैं तो सिर्फ़ इतना जानता हूँ
कि मैं शिव नहीं
जो तुझे कंठ में ही रोके रखूँ
और न ही कृष्ण
जो तेरे फन पर चढ़कर
लीला लील सकूं
विष्णु बनकर तुझ पर शय्या सजाना
तो मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकता
अरे मैं तो इक सीधा-साधा इंसान हूँ
जो अपने तरीके से
तुझे जीना चाहता हूँ
लेकिन तू!
तू तो मेरे कमजोर कांधो पर
चढ़कर बैठ गयी
और मैं बेबस लाचार
तुझे ढोये चले जा रहा हूँ
तेरी सवारी बन गया हूँ
क्यूँकि
ऐ ज़िन्दगी!
मैं जानता हूँ
कि तू वो है
जिसके आगे
सबको हारना पड़ता है
हम सबको हारना पड़ता है…
क्यूँ हिला देते हो
मेरी अंतरात्मा को झिंझोड़कर
क्यूँ सजा देते हो
मेरे रिसते ज़ख्मो को निचोड़कर
क्यूँ प्रेरित करते हो
मुझे हर पल मरने के लिए
क्यूँ जलाते हो मेरी होली
मौसम बदलने के लिए
क्यूँ सुनाते हो ताने
मुझे बचपन से जवानी तक
क्यूँ उड़ा देते हो
मेरी हसीं के भी रंग
क्यूँ नहीं देखने देते
भोर के सुनहरे रंग
क्यूँ नहीं दौड़ने देते
खुले आसमां के संग
क्यूँ दबाते हो
मेरी कुंवारी उमंगो की तरंग
क्यूँ लगाते हो नुमाइश मेरी
चाय के प्यालों के संग
क्यूँ समझते हो मुझे
पराया धन- पराया धन
क्यूँ भेज देते हो
फिर किसी दुहजु के संग
क्यूँ करते हो मेरा अंत
अनचाही अग्नि के संग
मैं बेटी ही सही
हूँ तो तुम्हारे ही जिस्म का हिस्सा
जिसे जितना ज़ख़्मी करोगे
उतना ही दर्द पाओगे
मैं मर गयी तो
इस धरा पर
इन्सानियत तो क्या
इंसान भी ना पाओगे
हँसने दो मुझे, मुस्कुराने दो
अपनी ही
एक प्यारी सी दुनिया बसाने दो
जिसमे मैं एक गहरी सांस ले सकूँ
अपने अरमानों के संग जी सकूँ
ज़िन्दगी भर कुल्लाचें भर सकूँ
और अपने महबूब की बाहों मे मर सकूँ
मुझे पढ़ाओ तो सही
मैं भी जहाज चला सकती हूँ
चाँद पर जा सकती हूँ
खेल में मेडल ला सकती हूँ
हर क्षेत्र में नाम कमा सकती हूँ
तुम्हें गौरव दिला सकती हूँ
देश का नाम बड़ा सकती हूँ
देश के लिए शीश कटा सकती हूँ
मुझे भी जिन्दा रहने का हक़ है
मुझे कोख में मत मारो
मुझे दूध में मत डुबाओ
मुझे दहेज़ के नाम पे मत जलाओ
मैं तुम्हारी ही बेटी हूँ…
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ
यह तो विदित है
कि मैं किशोरी नहीं
युवा हूँ, वृद्धा हूँ या अधेड़ा!
सलीब पर लटकी मेरी हर सुबह
कचोट जाती है सर्वत्र मेरा
मेरे पास
किशोरावस्था के प्रश्नों का
एक अनछुआ खजाना है
जिसके उत्तर मुझमें होम हो गए हैं
वो प्रश्न जो कभी
मीठा दर्द देते थे
सर्प बनकर
मुझको डस रहे हैं
कहाँ से लाऊं एक सपेरा!
काश मैं जल से निकली
मछली होती
या शाख से टूटी एक कली
जलती एक शमा होती
या भटकी एक बूंद अकेली
तब शायद में, मैं ना होती
चंद क्षणों की
तड़पन के बाद
मुक्त हो चुकी होती
लेकिन नहीं!
शायद यही मेरी नियती है
स्वयं को पहचानना भी
एक अनबूझी पहेली है
मैं कौन हूँ?
युवा हूँ?
नहीं, मैं युवा नहीं हूँ
युवा होती तो
केंद्र को पाने के लिए
परिधि पर ना घूम रही होती
केंद्र पा चुकी होती
मैं युवा नहीं हूँ
वृद्धा हूँ?
नहीं, मैं वृद्धा भी नहीं हूँ
वृद्धा होती तो
ओस का स्पर्श पाने के लिए
हवा बन बहती
सूर्य की तपन न बन जाती
नहीं-नहीं
मैं वृद्धा भी नहीं हूँ
अधेड़ा?
तो क्या मैं अधेड़ा हूँ?
नहीं, मैं अधेड़ा भी नहीं हूँ
अधेड़ा होती तो
युवा और वृद्धावस्था को
एक साथ आत्मसात कर रही होती
तृप्त हो चुकी होती
नहीं-नहीं
मैं अधेड़ा भी नहीं हूँ
तो फिर मैं कौन हूँ?
ना युवा! ना वृद्धा! ना अधेड़ा!
शायद मैं इन तीनो को
एक साथ जी रही हूँ
घर से बाहर युवा,
घर पर अधेड़ा
और बिस्तर पर वृद्धा…
क्या तुमने कभी देखा है
किसी मर्द का चेहरा
आँसुओं में डूबा हुआ
नहीं देखा ना!
अरे वो मर्द ही क्या
जिसका चेहरा
आँसुओं में डूब जाए
या जिसकी आँख से
एक भी आँसू निकले
हम तो दूसरों का चेहरा
आँसुओं में डुबोने वालों को
मर्द कहते हैं,
चाहे वो पत्नी को
घर से निकाल देने वाला
सतयुग का राम हो
या उसका व्यापार करने वाला
कलयुग का आदमी
मगर ठीक विपरीत
मैं अपना चेहरा
आँसुओं में डुबोता हूँ
कभी अपने लिए
कभी औरों के लिए
मगर जब-जब मेरा चेहरा
आँसुओं में डूबता है
तब-तब मेरे चेहरे से
एक पुराना, सड़ा-गला
गर्द भरा चेहरा झड़ता है
और मुझे
एक नये सूर्योदय का
आभास होता है
अब आप मुझे मर्द मानो
या ना मानो
मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता
मैं सूर्योदय देखता हूँ
देखता रहूँगा
अपना चेहरा आँसुओं में डुबोता हूँ
डुबोता रहूँगा
कभी अपने लिए
कभी औरों के लिए
क्यूँकि मैं जानता हूँ
कि मैं सतयुग का राम तो हूँ नहीं
और कलयुग का आदमी
बन नहीं पा रहा हूँ…
कहते हैं तुम्हारी नेकी
किसी न किसी दिन
किसी न किसी रूप में
तुम तक जरूर वापस आती है
मुझे अपनी नेकियों की वापसी का
इंतज़ार नहीं
मैं तो खुशनसीब होता
अगर मेरी नेकी हर बार
दरिया में डल जाती
मगर मेरी नेकी
न तो मुझ तक वापस आती है
न ही दरिया मे जाती है
अपितु हर बार
सर्प बन
मुझे ही डस जाती है
और मैं बेबस लाचार
जमीन पर पड़ा
माटी मे सना
अपना नीला ऐंठता जिस्म लिए
जहर से बंद होती पलकों को
खोले रखने की
नाकामयाब कोशिश करता हुआ
मुँह से झाग उगलता रहता हूँ
इस इंतज़ार में
कि शायद कोई आये
और मेरा मानवता पर से
विश्वास उठने से पहले ही
मुझे इस दर्द से मुक्ति दिलाये
मुझे किसी
देहधारी इंसान की तलाश नहीं
और न ही सर्वशक्तिमान
परमेश्वर का इंतज़ार
मैं तो पुकार रहा हूँ
अपनी ही आत्मा मे खोये
उस पूर्ण सत्य को
जो मुझ जन्मांध की लाठी बनकर
मुझे वहाँ ले जाए
जहाँ सुख और दुःख
आत्मा और परमात्मा का
एक ही बिंदु मे विलय होता हो
तब शायद!
मुझमें
इतनी शक्ति आ जाए
कि मैं अपनी ही नेकियों के
डसे हुए सर्प का दर्द
बिना मुँह से झाग निकाले
हँसते-हँसते
परमानन्द के साथ
सह सकूं
और पल-प्रतिपल
क्षण-प्रतिक्षण
इंतज़ार में रहूँ
किसी नये सर्प के डसने का
जो शायद मुझे डसने के बाद
आदमी बन सके…
अंदर और बाहर के
प्रदूषण और शोर में
काला धुँआ फेंकते
विचारों के पीछे छिपे
स्याह चेहरों में से
अपना वर्तमान चेहरा ढूंढ पाना
कितना मुश्किल होता है!
विचारों के तार
जुड़ने के साथ
हमारे भूतकाल का
आईने के समान
अनगिनत टुकड़ों में टूटना
और हमारे चेहरे का
उतने ही टुकड़ों में टूट जाना
एवं प्रत्येक चेहरे के
दानवी अट्टहासों के साथ
उनके ज़ुल्म की
अलग-अलग दास्तानो को
बारम्बार सुनना
कितना मुश्किल होता है!
गुनाहों की आंधी में उड़े
भविष्य के कागज़ी टुकड़ों को
आत्मा की टूटी बैसाखियाँ लिए
मानवता के कटे हाथों से
टुकड़ा-टुकड़ा समेट पाना
कितना मुश्किल होता है,
सचमुच कितना मुश्किल होता है!…
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सिर्फ शब्द नहीं होती सोच
सिर्फ जिस्म नहीं होती सोच
उसमें एक जान भी होती है
जो रूह से धड़कती है
मेरे शब्दों को समझना चाहते हो
तो तुम्हें अपनी सोच से
ऊपर उठना पड़ेगा
मेरे जिस्म पर से होते हुए
मेरी रूह तक उतरना पड़ेगा
मेरे मन की गहराइयों में डूबकर
आत्मा की ऊंचाइयों को
छूना पड़ेगा
क्या सोच रहे हो तुम
कि ये सब झूठ है
इसमें कोई सच्चाई नहीं
सिर्फ एक कविता है
शब्दों का सुंदर जिस्म है
शब्दों की सच्चाई नहीं
अनुभव हीनता है
अनुभव नहीं
जिस्मो का पहनावा है
अंदर की हकीकत नहीं
मैं सहमत हो सकता हूँ आपसे
अगर तुम
एक शब्द
सिर्फ एक शब्द
अपनी रूह से कहकर दिखाओ
क्या हुआ!
कोई शब्द नहीं मिलता!
तुम जितने शब्द बोलते या तोलते हो
सब दिखावा है
शब्दों से शब्दों को छुपाने का
तुम जानते हो
भली भांति जानते हो
कुछ शब्द दर्द होते हैं, कुछ वफ़ा होते हैं
कुछ ज़ख्म होते हैं, कुछ शफ़ा होते हैं
कुछ मंदिर होते हैं, कुछ बाजार होते हैं
कुछ शब्द सिर्फ खोखले ही होते हैं
हम इंसानों की तरह
यह सब शब्द हमारी रूह से नहीं
हमारे जिस्म से निकलते हैं
जो देखने में सुंदर, गर्म और टिकाऊ होते हैं
क्यूँकि जिस्मो का बाजार
हमेशा गर्म रहता है
कोशिश करो
शायद तुम
एक शब्द
सिर्फ एक शब्द
मन की गहराइयों से
आत्मा की ऊंचाइयों से
अपनी रूह से कह सको
किसी का दर्द सुन सको
किसी का दर्द सह सको
तब तुम शब्दों के
जिस्मों के बाजार से
ऊपर उठकर
यह जान पाओगे
कि सिर्फ शब्द नहीं होती सोच
सिर्फ जिस्म नहीं होती सोच
उसमें एक जान भी होती है
जो रूह से धड़कती है…
दूर तक जाती
वीरान सूखी नदी
जानवरों के
अधखाए कंकाल
पक्षियों के मांस नोचते जमघट
गुर्राते और मिमियाते
कुत्तों के बीच
मैं स्वयं को
पल-पल बदलते
स्वांग रचते हुए देख रहा हूँ
मैं जानता हूँ
कि मुझे अब गिद्ध बनना है
क्यूँकि मेरे सामने
एक निरीह शिकार पड़ा है
मैं देखते ही देखते
गिद्ध बन जाता हूँ
और गढ़ा देता हूँ
अपनी पैनी चोंच
शिकार के गर्म मांस में
जो शायद मर रहा है
लेकिन अभी ज़िंदा है
तभी मुझे
एक और शिकार नजर आता है
लेकिन मेरे पहुंचने से पहले ही
किसी चील का ग्रास बन जाता है
मैं फिऱ जिस्म बदलने लगता हूँ
और बन जाता हूँ
एक चालाक चील
चील बन कर जब मैं
शिकार झपट लेता हूँ
अपनी अतृप्त तृष्णा मिटाने के लिए
एक और जिस्म ढूंढने लगता हूँ
तभी मैं देखता हूँ
कि मेरे बाईं ओर एक कुत्ता
निडर शिकार कर रहा है
मैं उसे ध्यान से देखने लगता हूँ
उसमें छिपी निडरता को
पहचानने की कोशिश करता हूँ
शायद मैं पहचान गया हूँ
वो ताकतवर है
मैं फिर जिस्म बदलने लगता हूँ
और बन जाता हूँ एक कुत्ता
जो कमजोर को देखकर गुर्राता है
कमजोर पहले, धीरे-धीरे
दबे पांव पीछे हटता है
फिऱ बद्दुआएं देते हुए
भाग जाता है
मुझपर उसकी बद्दुआओं का
कोई असर नहीं होता
क्यूँकि मैं जानता हूँ
मैं ताकतवर हूँ
कभी डर, कभी लालच के लिए
अपनी अतृप्त तृष्णा मिटाने के लिए
मेरे जिस्म-दर-जिस्म बदलने का
यह सिलसिला
अंत के प्रारंभ तक
चलता रहता है
अंततः मेरा जिस्म
अपनी अतृप्त तृष्णा मिटाने के लिए
अपना आकार बदल लेता है
मुझसे मेरा ही
अस्तित्व छिन जाता है
अब मेरे जिस्म पर
मेरा क़ोई अधिकार नहीं रहता
मेरा जिस्म
अनचाहे आकार में
बढ़ने लगता है
बढ़ते-बढ़ते वह इतना
विराट एवं विकराल हो जाता है
कि समस्त ब्रह्माण्ड
मुझमें समा जाता है
और मैं समा जाता हूँ
प्रत्येक इस युग के मनुष्य में
जो शायद!
किसी नए ज़िस्म की
तलाश में है…
अभी तुम्हारी जिन्दगी में साज़ नहीं
अभी तुम्हारे गले में आवाज नहीं
हम तुम्हें कहीं ना नज़र आएंगे
हम तुम्हें कभी ना मिल पायेंगे
ढूंढा करोगे तुम हमें
आसमानी परिंदों में
ढूंढ लोगे जिस दिन तुम खुदको
आवाज दोगे रूह से रूह को
हम तुम्हें तुम मे ही मिल जायेंगे
हम तुम्हें हर तरफ नज़र आयेंगे
वरना ढूंढा करोगे तुम हमें
आसमानी परिंदों में…
जब तुम्हारे सीने मे दर्द आये
तब मुझे याद करना
जब तुम्हारी आँख भर आये
तब मुझे याद करना
जब तुम्हें कोई अपना ठुकराये
तब मुझे याद करना
जब गम हरदम सताये
तब मुझे याद करना
जब आईना तुम्हे रुलाये
तब मुझे याद करना
जब कोई रास्ता नजर ना आए
तब मुझे याद करना
जब कबीर आवाज लगाएं
तब मुझे याद करना
वरना न करना याद मुझे
दुनिया वालों की तरह
ना देना आवाज मुझे
यूँ ही इस तरह
हम तुम्हें कहीं ना नजर आएंगे
हम तुम्हें कभी ना मिल पाएंगे
वरना ढूंढा करोगे तुम हमें
आसमानी परिंदों में
ढूंढ लोगे जिस दिन तुम खुद को
आवाज दोगे रूह से रूह को
समझने लगोगे दूसरे के दर्द को
याद करना उस दिन मुझे
आवाज देना उस दिन मुझे
हम तुम्हें तुम मे ही मिल जाएंगे
हम तुम्हें हर तरफ नजर आएंगे
वरना न करना याद मुझे
ना देना आवाज मुझे
कभी भी…
कहीं भी…
जब घर की दीवारों में
जंगल उग जाते हैं
तब वो घर, घर नहीं रहते
खंडहर कहलाते हैं
चाहे उसमें
लोग ही क्यों न रहते हो
कुछ जंगल ऐसे होते हैं
जो हमें घर नजर आते हैं
या जिन्हें हम
घर के कपड़े पहना देते हैं
क्यूँकि हम
रहना तो घर में चाहते हैं
लेकिन जंगल का कानून चलाते हैं
हम चाहते हैं
हमारे जंगल, घर नजर आए
लेकिन हम भूल जाते हैं
की जंगल जब घना हो जाता है
तब उसके पेड़ों की ऊंचाई
बेतहाशा बढ़ने लगती है
और वह
घर की दीवारों को तोड़ती हुई
छत फाड़ कर बाहर निकल आती है
तब घर का जंगल
दुनिया जहाँ के सामने आ जाता है
फिर दुनिया वाले मिलकर उसे
खाद, पानी और हवा देते हैं
जंगल घना और घना होता जाता है
जिसमें जमीन पर रहने वालों के लिए
कोई जगह नहीं बचती
जमीन पर रहने वालों के जिस्म
जंगली कांटों से लहूलुहान हो जाते हैं
तब हम पेड़ पर रहने लगते हैं
लेकिन हमारी परछाई से भी
पेड़ सूख जाता है
हम घर से बेघर हो जाते हैं
घर पूर्णतया जंगल बन जाता है
हार कर हम
एक नया घर बनाने के लिए
गीदड़ बन
शहर की ओर भागते हैं
लेकिन
हमें मिलती है
गीदड़ की मौत…
इस भरी दुनिया में तू किधर जाएगा
होगा ख़ुदा से दूर तो बिखर जाएगा,
ख़ुदा सामने होगा जब भी आवाज़ दे
तेरी परछायी बन चलेगा जिधर जाएगा
देगा तुझे भी सांसे चाहे उसे न मान
माना तो रूहानियत से तू भर जाएगा
गुनाह उम्र भर के वो माफ़ कर देगा
जब तेरा रास्ता उसके दर जाएगा
सर झुका देगा जब उसकी रज़ा में तू
हर सहरा से तू हँसकर गुज़र जाएगा
सजदे मे उठा देगा जब तू हाथ अपने
उसकी रहमतों से लबालब भर जाएगा
जन्नत नसीब होगी ‘राजा’ उसके करम से
जब ये दुनिया छोड़ उसके घर जाएगा
हर इल्ज़ाम तेरे सर से उतर जाएगा
हर सैलाब तेरी ज़िन्दगी से गुज़र जाएगा
तू मेरे संग है तो मुझे क्या गम है
मुश्किलें जितनी भी मिले सब कम है
हर दरिया हम हँसकर पार कर लेंगे
जब तक तेरा मुझपे रहमो-करम है
सितारे सारे मेरी झोली में डाल देगा
किसी और में कहाँ इतना दम है
मुझे तो यकीं है तुझ पर मेरे मौला
सोचते रहें वो सब जिन्हें भरम है
अब तो बख़्श दे सब गुनाह मेरे
शर्मिन्दा हूं मैं, आँखों में शरम है
सामने आकर अब तो गले लगा ले
तेरी याद में मेरी सूनी आँखे नम है
हर त्यौहार को अब कुछ यूं मनाया जाए
किसी गरीब के घर का चूल्हा जलाया जाए
ज़िन्दगी हमारी रोशनी से भर जाएगी
उसके दर इक दिया जलाया जाए
सदियों से उदास चेहरे फिर खिल उठेंगे
हर दर को अपनी दुआओं से सजाया जाए
भर जायेंगे ज़िन्दगी में सब रंग तुम्हारे
थोड़ा प्यार का रंग चेहरे पे लगाया जाए
ज़िन्दगी तुम्हारी खुशनुमा हो जाएगी
हर आंगन को फूलों से सजाया जाए
ना उम्मीदों की हौसला-अफजाई की जाए
उन दिलो में उम्मीद-ए-चिराग जगाया जाए
अपने तो अपने हैं, गैर भी अपने हो जाए
हर रिश्ते को बड़ी शिद्द्त से निभाया जाए
अंधेरों में डूबी इन वीरान बस्तियों में
इक दीया खुशिओं का भी जलाया जाए
रंजिशें सब जहाँ से फ़ना हो जाएगी
नफरतों को मोहब्बत से मिटाया जाए
वक़्त हर वक़्त का हिसाब माँगता है
तुम्हारे हर कर्म का जवाब माँगता है
कितनी भी उल्फ़त करो वक़्त से मगर
बिगड़ा वक़्त दर्द बेहिसाब माँगता है
वक्त के फकीरों पे मत हँस रे बन्दे
फ़कीर सिर्फ रब का आदाब माँगता है
कहाँ के तुम नवाब, कहाँ के हम सिकंदर
बुरा वक़्त पैराहन भी उतार माँगता है
कयामत की रात होगा सबका हिसाब
खुदा भी कर्मो की किताब माँगता है
हर वक़्त खुश रहने का यही है तरीका
‘राजा’ दोस्ती तुम्हारी लाजवाब माँगता है
जब तुमने मुझे
खो देने के डर से
अपनी बाहों में जकड़ लिया था
तब मैंने स्वयं को
बूंद बूंद पिघलता
सागर अनुभव किया था
जब एक बेरहम ख़याल
तुम्हें डस गया था
जिसका जहर तुमने
अपनी आँखों में उतार कर
उन्हें नशीली बना लिया था
तब मैंने स्वयं को
एक जहरीला भुजंग
अनुभव किया था
जब तुम्हारे नाजुक हाथों में
मुझ तक पहुंचने के लिए
मेरे जिस्म पर से
पगडंडी बनाते-बनाते
फफोले पड़ गए थे
तब मैंने स्वयं को
एक पथरीला पहाड़
अनुभव किया था
जब तुम्हारा जिस्म
मुझमे उगे
जहरीले कांटो वाले
केक्ट्स उखाड़ते-उखाड़ते
लहूलुहान हो गया था
तब मेने स्वयं को
दानव अनुभव किया था
होनी तो होने का बहाना ढूंढती है
हुआ वही जो होना था
तुम्हारा नागिन बाँहो में
मुझ पथरीले पहाड़ को
जकड़कर मथना
और इस मन्थन से निकले विष को
अपनी आँखों में ही रोक कर
उन्हें नशीली बना लेना
और अमृत का घड़ा
राहु-केतू की नजर बचाकर
मुझे थमा देना
एक शाश्वत सत्य है
नहीं तो
ना जाने हम कितना भटकते
बूँद-बूँद
अमृत को तरसते
अब तो घड़ा भर अमृत
हमारे अधरों से होता हुआ
सीनों में उतर चुका है
अब हम अमर हैं…
मेरा चेहरा प्यार से
भर दिया आपने
रोम-रोम में मीठा चुम्बन
जड़ दिया आपने
इस नये रिश्ते को
क्या नाम दूँ मैं
हर पुराना नाम
बेनाम कर दिया आपने
पिघल गये आँखो के मोती
आँसुंओं में ढलकर
राख हो गये झूठे नकाब
प्यार मे जलकर
इस बेवफा दिल में अब
कुछ भी छिपा नहीं
अपना पोर-पोर खोल के
सामने रख दिया आपने
नहीं जानता मैं
क्यों ख़फ़ा रहते थे
शायद जन्मों के बिछोड़े का
गिला करते थे हम
आत्मा तो अपनी
कभी जुदा ही ना थी
दो जिस्मों को भी एक
कर दिया आपने…
मेरी सदियों पुरानी अधूरी चाहतें
जिसे मैंने हमेशा
उसके अधूरे पन के साथ ही जिया
न जाने क्यों पूरा होने को मचलने लगी है
उसे लगने लगा है कि
उनका सदियों पुराना अधूरापन
खत्म होने को है
उसे सपनों के पंख लग गए हैं
और वह अपनी मंजिल को उड़ चली है
मैं एक तरफ खड़ा
आँखें मलते हुए
सोच रहा हूँ
कि यह मेरा भ्रम है
या चाहत की हकीकत
मैंने कई बार चाहत को समझाना चाहा
कि वह अपनी चाहत को
पूरा करने की चाहत में
कस्तूरी तो नहीं ढूंढ रही
लेकिन वह मुझे ही
समझाना चाहती है
नींद से जगाना चाहती है
मेरे साथ
हंसना और गुनगुनाना चाहती है
मुझे अधूरे से पूरा बनाना चाहती है
और वह अपनी मंजिल की छांव में
अपने आने वाले
सब लम्हे बिताना चाहती है
वह चाहती है कि
वह अपनी मंजिल का हाथ थामे
मंदिर में अपने प्यार का दिया जलाए
रब से अपनी और अपनी मंजिल की
कभी ना बिछड़ने की दुआ मांगे
और जब रब खुश हो जाए
तो उसकी रहमत की चादर से खुद को
और अपनी चाहत को ढ़ाप ले
वह चाहती है कि
वह अपनी मंजिल का हाथ थामे
खुले आसमान के नीचे
दूर तक दौड़ लगाए
महकती खुशनुमा हवाओं को
अपने सीने में उतार ले
वो दौड़ती रहे, दौड़ती रहे
दौड़ते-दौड़ते कभी अपनी मंजिल को देखे
कभी आसमां में बैठे रब से बातें करें
और जब थक जाए
तो अपनी मंजिल की गोद में
सर रख के
मीठी नींद सो जाए
वह चाहती है कि
वह अपनी मंजिल का हाथ थामे
पर्वतों की चोटियों से
दुनिया की ओर मुंह करके
अपनी मंजिल को सीने से लगाए
ऐलान करे की
ऐ दुनिया वालों
देखो हमारे प्यार को
हम ओम हैं
हमें अल्लाह ताला का आशीर्वाद प्राप्त है
यह जन्म तो क्या
आने वाले तमाम जन्मों का
हमारा अटूट साथ है
वह चाहती है की
वह अपनी मंजिल का हाथ थामे
समुद्र की लहरों के साथ
अठखेलियाँ करें
समुंदरों के किनारे किनारे,
घुटनों तक पानी में
अपनी मंजिल के साथ
लंबी दौड़ लगाए
दौड़ते-दौड़ते
कभी अपनी मंजिल को चूमे
कभी उसे बाहों में भर ले
कभी उसे अपने सीने से लगाए
कभी उसके अधरों पर
अपने अधर रखकर
अपने सीने में उफनता समुंदर
उसके सीने की
अथाह गहराइयों में उड़ेल दे
वह चाहती है कि
वह अपनी मंजिल का हाथ थामे
दूर आसमानों के पार जाए
झिलमिलाते सितारों को छू ले
आसमां के पार जहाँ जितने भी हैं
सब अपनी बाहों में भर ले
और उसकी मंजिल जहां जहां से गुजरे
वहां के लोगों के दिलो में
मीठा प्यार बन बस जाए
और वहां के लोग
सिर्फ प्यार के गीत गाए
वह चाहती है कि
वह अपनी मंजिल का हाथ थामे
दूर रेगिस्तान का सफर तय करे
जहां जहां उसका कारवां गुजरे
बाहर रेगिस्तान में फूल खिल उठे
जहां जहां भी उसकी मंजिल मुस्कुराए
वहां मीठे पानी के झरने बहने लगे
जहां-जहां भी वह
अपनी मंजिल को प्यार करे
वहां रेत के कण कण में
प्यार समा जाए
वह चाहती है कि!
वह चाहती है कि!
चाहत की चाहते तो असीम है
उन्हें कहाँ तक औराक पर उतारूं
लेकिन चाहत की चाहतें
सिर्फ मंजिल के साथ हैं
उसकी प्यारी मंजिल
जो उसे बहुत बहुत बहुत प्यार करती है
प्यार का इजहार करती है
आखिरी लम्हें तक साथ निभाना चाहती है
चाहत के साथ ही मुस्कुराना चाहती है
अब चाहत की ज़िन्दगी मंजिल का प्यार है
क्यूँकि चाहत की जान
मंजिल में बस चुकी है
अब चाहत मंजिल बन चुकी है…
हर ख्वाब हकीकत नहीं होता
हर हकीकत ख्वाब नहीं होती
जिन्दगी में कुछ ऐसे लम्हे आते हैं
जब कुछ ख्वाब तो हकीकत बन जाते हैं
और कुछ ख्वाब, ख्वाब ही रह जाते हैं
खुशनसीब होते हैं वो लोग
जिनके ख्वाब, ख्वाब नहीं रहते
हकीकत हो जाते हैं
मैं भी ख्वाब देखता हूँ
लेकिन छोटे-छोटे
क्यूँकि मैं
अपनी छोटी सी दुनिया का
एक छोटा सा इंसान हूँ
क्यूँकि मेरी दुनिया
बहुत छोटी सी है
जिसमें बड़े ख्वाब के लिए
कोई जगह नहीं
मेरा एक छोटा सा ख्वाब
ज़िन्दगी का मध्य बिंदु
एक अंत
एक नई शुरुआत
मेरे प्यार के साथ
मेरे प्यार के नाम
आज हमारे मिलन का दिन है
वही ख्याल, वही ख्वाब
जो हकीकत बना
मेरे सामने है
इसे मैं अपने प्यार के
मिलन का दिन कहके
छोटा नहीं करना चाहता
क्यूँकि ख्वाब तो
अक्सर आता है
और यह ख्वाब
ज़िन्दगी में सिर्फ
एक बार ही देखा जाता है
आज ज़िन्दगी का वही प्यारा दिन है
एक अंत
एक नई शुरुआत
मेरे प्यार के साथ
मेरे प्यार के नाम
यह एक ख्वाब ही नहीं
उस में छिपा जन्म है
एक नई शुरुआत का
अपने प्यार का
ज़िन्दगी के मध्य बिंदु से
अंत के बाद का
आज ज़िन्दगी की इस
नई शुरुआत पर
मैं अपने प्यार को
ना तो सुनहरे भविष्य का
कोई वचन देता हूँ
और ना ही उसे कोई
हंसी ख्वाब दिखलाता हूँ
आज के दिन मैं
पूर्ण आत्मविश्वास के साथ
अपने प्यार को
यह विश्वास दिलाता हूँ
कि हमारे प्यार का
भविष्य प्यारा होगा
यहि आज हमारी
ज़िन्दगी के मध्य बिंदु से
अंत के बाद कि
एक नई शुरुआत है
मेरे प्यार को
मेरे प्यार की
हमारे मिलन की
प्यारी-प्यारी शुभकामनाएं…
ऐसा मेरे साथ ही क्यूँ होता है
कि जब भी मैं मरना सीख जाता हूँ
तो कोई मुझे
एक नई ज़िन्दगी का
वादा दे जाता है
इस एहसास के साथ
कि यह अमर है
जो कभी नहीं मरेगी
और मैं नासमझ
फिर धोखे में आकर
जीने लगता हूँ
बिना इस अहसास के
कि जब यह धोखा टूटेगा
तब मुझे एक और
दर्दनाक मौत सहनी पड़ेगी
सड़क पर अधकुचले कुत्ते की तरह
रेगिस्तान में पानी का भ्रम
मेरी अमर जिन्दगी की तलाश
जिसमें बहुत प्यार हो
जो कभी न मरे
लेकिन सब व्यर्थ
फिर वही अन्त
फिर वही एहसास
वही दर्दनाक मौत
सड़क पर अधकुचले कुत्ते की तरह
शायद! मैं अब जान गया हूँ
कि हर ज़िन्दगी का अन्त निश्चित है
जिसका दर्द निर्भर करता है
कि अमर होने की चाहत
कितनी गहरी है
मैं जब-जब अमर होना चाहता हूँ
हर बार एक ही मौत पाता हूँ
सड़क पर अधकुचले कुत्ते की तरह
मेरा पागलपन
मैं बार-बार मरना नहीं चाहता
अमर होना चाहता हूँ
अपने प्यार को
ध्रुव बनाना चाहता हूँ
यह जानते हुए कि
इस युग में
यह असंभव है
मगर मेरी अमर ज़िन्दगी की तलाश
अनंत है, कभी खत्म नहीं होती
चलती ही रहती है
मैं बार-बार मरना नहीं चाहता
सड़क पर अधकुचले कुत्ते की तरह
मैं अमर होना चाहता हूँ
मुझे अमृत्व दो…
क्यों फैलाया रिश्तों का यह
झूठा आडंबर तुमने
अपने इर्द-गिर्द
जब तुम हर रिश्ते को
खोखला समझते हो
हर रिश्ते मैं सिर्फ
एक मर्द और औरत देखते हो
सब रिश्ते तुम्हारी नजर में
एक समान हैं
जिसमें एक मर्द होता है
और एक औरत
जो कभी भी
आदम और होवा
बन सकते हैं
मैं मानता हूँ
तुम्हारी सोच गलत नहीं है
क्यूँकि ये सामाजिक तिनकों से
घरोंदा हुई है
जिसने तुम्हारी सोच को
घर दिया है
मैं जानता हूँ
भली भांति जानता हूँ
कि हर रिश्ते में विश्वास होता है
और अगर वह अटूट नहीं है
तो उसे टूट जाना चाहिए
ज़िन्दगी को चार पहियों वाले
तख़्ते के ऊपर बैठकर
बिना टांगो वाले भिखारी कि भांति
कितनी दूर तक
घसीटा जा सकता है
कोई विश्वास की
भीख तो नहीं दे सकता
विश्वास!
एक भरा पूरा शब्द
जिसके बल पर पत्थर में भी
भगवान पाया जा सकता है
परंतु जब इसे
शक की दीमक लगती है
तो यह अंदर ही अंदर
खोखला हो जाता है
और खोखला विश्वास
हवा के इक झोंके से
तिनका-तिनका बिखर जाता है
यह जरूरी नहीं
की विश्वास रिश्तों के साथ ही बने
बिना रिश्तों के भी
विश्वास बन सकते हैं
कई बार तो
विश्वास की मजबूती
रिश्तों से बहुत ऊपर उठ जाती है
जहां से रिश्ते भी बोने लगने लगते हैं
परंतु बिना विश्वास के
रिश्तों को निभाना
एक लाश ढोने के समान है
जिसका अंतिम संस्कार
अवश्यम्भावि है
नहीं तो लाश बदबू देने लगेगी
और उस बदबू से
हम सब की साँसे घुट जाएंगी…
थका नहीं हूँ मैं आज भी
उम्र पकने के बाद भी
दुनियादारी से, लाचारी से, बीमारी से
दौड़ता हूँ मैं आज भी
उम्र पकने के बाद भी
बादलों के संग, मन में उमंग,
लूटता कटी पतंग
जो मेरे सब गम भुला देती है
और मुझे मुस्कुराहने की वजह दे जाती है
देखता हूँ मैं आज भी
उम्र पकने के बाद भी
कुदरत के नज़ारे
टूटते सितारे
पेड़ों पे लटके चिड़ियो के
घोसलें प्यारे-प्यारे
जिसमे कभी चिड़िया के बच्चे
और कभी उसके अंडे दिख जाते हैं
इनमे से एक अंडे में से
मेरा हर रोज जन्म होता है
जो आज भी
अपनी माँ की चोंच से
दाना चुगने को बेताब रहता है
और अक्सर
दाना चुगने के बाद
अपनी माँ के पंखो के नीचे
सुकून से सो जाता है
सुनता हूँ मैं आज भी
उम्र पकने के बाद भी
वही गीत पुराने
जिन्हे सुने कई बार तो
हो जाते हैं ज़माने
अकेले में मैं आज भी
वही गीत गुनगुनाता हूँ
जो मेरे मन के संगीत को
जिन्दा रखे हुए हैं
और मेरे सुर बन के
मेरी रग रग में बस चुके हैं
मेरी आवाज अब मेरे गले से
बाहर नहीं निकलती
दुनिया के लिए वो खो रही है
मेरी आवाज़ के आशार
मेरी ज़ुबान कि
तहज़ीब बन चुके हैं
जो सिर्फ मुझे सुनाई देती है
और आज कल में
अपने मन कि आवाज़
सुनने लगा हूँ
महसूस करता हूँ मैं आज भी
उम्र पकने के बाद भी
बरसात के बाद
आसमां से उतरे इंद्रधनुषी रंग
जो मैं अपनी आँखों में भर लेता हूँ
और रात को सारे रंग
अपने तकिये के नीचे
रखकर सो जाता हूँ
जो मेरे सपनो क़ो
रंगीन बना देती हैं
और मेरी आँखों कि
रोशनी बड़ा देती हैं
सुनता हूँ मैं आज भी
उम्र पकने के बाद भी
मेरे अपने रहनुमा
दिल से निकले कहकहा
पक्षियों की चहचहा
जो मेरे मन को
सुकून देती है
मेरी हर चाहत को
पूरा करती हैं
और मेरे जीने का
सामान बन जाती हैं…
थका नहीं हूँ मैं आज भी
उम्र पकने के बाद भी
दुनियादारी से, लाचारी से, बीमारी से
एक चिड़िया मेरी छत पर
रोज आती है
जो प्यार के गीत गाती है
वो मेरी दोस्त बन जाती है
दोनों करते हैं बातें
एक आवाज उधर वो निकालती है
दूसरी इधर मैं
काफी देर खेलने के बाद
वो उड़ जाती है
कल फिर आने का वादा करके
और मैं उन सब आवाजों को समेट कर
अपने कानों में भर लेता हूँ
छत से नीचे आ जाता हूँ
और सारा दिन उस चिड़िया के
गीत गुनगुनाता हूँ
ज़िन्दगी में कुछ भी
पका पकाया ना आया
जो कुछ भी पाया
अपनी मेहनत से कमाया
पाई-पाई जोड़ आराम का
हर सामान जुटाया
तिनके तिनके से घर बनाया
बस इसी जद्दोजहद में
सूर्योदय और सूर्यास्त ना देख पाया
जो इस उम्र में आकर
मुझे मेरी बेटी ने सिखाया
कि अपने लिए भी जीना जरूरी है
उम्र चाहे कोई भी हो
वो अपने लिए जीती है
और हमें जीना
सिखाती है
अब मैं जीना सीखने लगा हूँ
अब मैं रोज छत पर जाकर
सूर्योदय देखता हूँ
और सूरज की कुछ सुनहरी किरणे
अपने जिस्म पे उतारकर
अपनी जेबों में भर लेता हूँ
जो मुझे दिन भर
गरमाहिश और रोशनी देती है
और जीने की राह दिखाती है
मुझे अपनी ही ज़िन्दगी से मिलाती है
मेरे होने की वजह बन जाती है
मुझे एहसास दिलाती है कि
थका नहीं हूँ मैं आज भी
उम्र पकने के बाद भी
दुनियादारी से, लाचारी से, बीमारी से
हमारे साथ इक बिल्ली का
बच्चा भी रहता है
जिसका रंग टाइगर जैसा है
उसका नाम हमने टाइगर रखा है
वो भी मेरे साथ छत पर आता है
मेरे साथ मुस्कुराता है
सूरज को निहारता है
सूर्योदय देखता है
पक्षियों के साथ खेलता है
उसका अपनी जात में
कोई दोस्त नहीं
पर वो हमेशा मस्त रहता है
क्यूँकि वो हमें
अपना दोस्त मानता है
दोस्ती में
जन्म-मरण, जात-पात, यम-योनि
कोई मायने नहीं रखती
दोस्ती नियामत है रब की
दोस्ती में बस
विश्वास होना चाहिए
दिल साफ होना चाहिए
और प्यार होना चाहिए
मेरे दोस्त बहुत थोड़े से हैं
जो एक हाथ की उंगलियों पे
गिने जा सकते हैं
जिन्होंने मुझसे मेरा परिचय करवाया
मुझे मेरी ताकत का अहसास करवाया
मेरा हरपल साथ निभाया
मुझे हमेशा हौसला दिलाया कि
मैं कमजोर नहीं, ताकतवर हूँ
दौड़ते रहना है मुझे
मैं कभी थक नहीं सकता
दुनियादारी से, लाचारी से, बीमारी से
मेरी जीवन साथी
जिसके बिना मैं
अधूरा ही हूँ
मेरी बेवफाई मैं भी
मेरा साथ निभाती है
मुझे सिखाती है कि
मुहब्बत कहने की नहीं
निभाने की चीज है
ज़िन्दगी में समता होना जरुरी है
समता चाहे दुनियादारी की हो
लाचारी की या बीमारी की
चाहे हमें ज़िन्दगी को
टूटे सपनों के साथ ही
क्यूँ ना जीना पड़े
समता तुम्हें जमीन पर गिरने नहीं देती
वो तुम्हें ऊंचा उठाती है
आसमानो के पार
नए आसमानो की सैर कराती है
तुम्हें सम्पूर्ण होने का
अहसास दिलाती है
और मैं पगला समता छोड़
ज़िन्दगी भर
मोहब्बत के अधूरे पहाड़े ही
रटता रहा
भावनाओं में ही बहता रहा
बेबस बना बंजर जमीन पर पड़ा
आसमानों को निहारता रहा
इस उम्मीद के साथ कि
इक दिन मुझे भी
मुहब्बत के सारे पहाड़े
याद हो जायेंगे
मुहब्बत मेरी कमजोरी नहीं
ताकत बन जाएगी
और मैं
इस नए हौसले के साथ
आसमानों के पार
उड़ान भर सकूंगा
और कह सकूंगा कि
थका नहीं हूँ मैं आज भी
उम्र पकने के बाद भी
दुनियादारी से, लाचारी से, बीमार से…
मेरे प्यार ने
मेरे प्यार के
मिलने से पहले
कुछ प्यारे सपने संजोए थे
कुछ प्यारी इच्छाएं
अपने दिल में छुपा रखी थी
जो हादसों का शिकार हो गई
मेरे प्यार की पहली इच्छा
मेरे प्यार ने मेरे प्यार से
एक नवजात प्यार की
तमन्ना की थी
लेकिन मेरा प्यार बूढ़ा निकला
जिसके चेहरे पर
गुनाहों के गहरे दाग थे
जिसे मेरे प्यार ने
अपने आँसुओं कि बरसात करके धो दिया
मेरा प्यार अपनी बेवफाई पर शर्मिंदा हुआ
तभी हमें एक उपजाऊ जमीन मिली…
मेरे प्यार की दूसरी इच्छा
मेरे प्यार ने मेरे प्यार से
एक हंसते मुस्कुराते
निश्चिंत प्यार की तमन्ना की थी
लेकिन उसके हाथ जल गए
बुझे हुए शोलों की ठंडी राख से
जो जमाने के तेज़ झोंकों में
अपना अस्तित्व बनाए रखने की कोशिश में
आँधियों से लड़ रही थी
मेरे प्यार ने अपने प्यार की बरसात करके
उसे बिखरने से बचा लिया
मेरा प्यार फिर अपनी बेवफाई पर शर्मिंदा हुआ
तभी उपजाऊ जमीन में एक बीज पड़ा…
मेरे प्यार की तीसरी इच्छा
मेरे प्यार ने
मेरे प्यार से
दुनिया की शोरो महफिलों से दूर
एक सीधे-साधे प्यार की तमन्ना की थी
लेकिन मेरे प्यार के पांव फिर लड़खड़ा गए
उसकी हालत
उस हारे हुए जुआरी सी हो गई
जो सर झुकाए
आँखें जमीन पर गड़ाए
उसके आगे शर्मिंदा खड़ा हो
जिसे वह जुए में हार चुका हो
मेरे प्यार की मेहरबानी
उसके अपनी कुछ इच्छाएं बेचकर
मेरे प्यार को छुड़ा लिया
और उसे धृतराष्ट्र के भरे दरबार में
दुर्योधन के हाथों
निर्वस्त्र होने से बचा लिया
मेरा प्यार अपनी बेवफाई पर फिर शर्मिंदा हुआ
तभी बीज अंकुर बन फूटा…
मेरे प्यार की
फिर एक और इच्छा का कत्ल
अंकुर पौधा बन गया
मेरे प्यार की इच्छा दर इच्छा
कत्ल होती गई
पौधा बड़ा होता गया
उस पर नई-नई शाखाएं फूटी
उस पर नाजुक पत्तियां आयी
पौधा और बड़ा होता गया
पौधा पेड़ बन गया
पेड़ अब फल के इंतज़ार में है…
एक वह भी जमाना था
जब हम चाँद सितारों के पास
अक्सर घूमते-घूमते
निकल जाया करते थे
कभी अपने जिस्म को
साथ ले जाते
कभी घर छोड़ जाया करते थे
कुछ इधर की, कुछ उधर की
बातों को एक ही हांडी में
पकाया करते थे
तब चाँद बेदाग था
लोगों का तो नहीं कह सकता
लेकिन मेरा तो यही विश्वास था
ज़िन्दगी का तो पता नहीं!
किन्तु कुछ क्षणों का ही सही
साथ तो था
फिर एक दिन
चाँद, ईद-का-चाँद हो गया
उसका एक-एक क्षण
कहीं खो गया
मैंने उसको ढूंढा, बहुत ढूंढा
वो मुझे कहीं नज़र ना आया
फिर एक दिन अचानक
मुझे बादलों के पीछे
उसकी झलक दिखाई दी
मगर उसकी चाँदनी
कहीं खो गयी थी
उसका आकार
रोज घटने और बढ़ने लगा
उसके दामन पर
कुछ अनदेखे निशान
स्पष्ट झलकने लगे
अब जब भी मैं
घूमते-घूमते
चाँद के पास जाता
मैं वहाँ पहले वाला चाँद
ढूंढता ही रह जाता
अब चाँद
ना तो मुझसे बातें करता
ना मुझे देख मुस्कुराता
अपितु मुझसे नजरें चुराने लगता
अब उसकी चाँदनी में
ठंडक की जगह,
तपन ने ले ली थी
जिस से मेरा जिस्म जलने लगता
मेरे दिमाग़ की नसें फटने लगती
मेरा उस आग में
सांस लेना भी दूभर हो जाता
मैं वहां से भागता-भागता
और तेज भागता
किंतु कुछ क्षणों बाद
बिना अपने जिस्म की परवाह किए
फिर उस आग की ओर
खिंचा चला जाता
लेकिन जब भी मैं
उस आग में जाता
अपने जिस्म का
एक हिस्सा जला आता
शायद यही एक रास्ता ढूंढा था!
मैंने मोक्ष का
स्वयं को आत्मदाह करके
अपने अंगों की
एक-एक करके
तृष्णाओं के हवन कुंड में
पूर्णाहुति देने का
मेरी बदकिस्मती
मेरे सारे अंग तो भस्म हो गए
लेकिन मैं फिर भी ज़िन्दा रहा
मोक्ष चाहता था त्रिशंकु हो गया
दुनिया और देवताओं के बीच
अधर में खो गया
शायद!
मैं अब भी
मोक्ष की तलाश में हूँ…
परछाइयों के पीछे भागने से
चाँद तो बाहों में नहीं
पाया जा सकता!
उसके लिए
चाँद की ओर मुंह करके
दोनों हाथ फैलाकर
आत्मीय निगाहों से
उसे एकटक निहारते हुए
मन की ऊँची उड़ान भरनी पड़ती है
तभी कुछ
अपने अन्दर
दिल के रास्ते
आत्मा की अथाह गहराइयों में
उतरता हुआ
महसूस किया जा सकता है
और चाँद बाहों में
पाया जा सकता है
न कि
परछाइयों के पीछे भागने से…
जब कभी भी
तुम्हारी आँखों में
मैं अपना प्रतिबिम्ब देखता हूँ
पहचानने की कोशिश करता हूँ
क्या ये मेरा ही है
लेकिन मैं
कोशिश ही करता रहता हूँ
और वह
अपना आकार बदल देता है
कोशिशें
एक बार फिर
नाकामयाब हो जाती है
और मैं बेबस, लाचार
तुम एक मूक दर्शक की भांति
मेरी इस बेबसी पर
मुस्कुरा भर देती हो
और मैं
जुट जाता हूँ
एक बार फिर
अपना प्रतिबिम्ब पहचानने…
मृगतृष्णा कब तक भटकेगी
कब तक उसका लहू टपकेगा
कब तक उसकी सांस चलेगी
कितना दौड़ पाएगी वो
रिसते जख्मों के साथ
ज़माना शिकारी हो गया
लोग शिकार करने लगे
जिनका निशाना कभी
चूकता नहीं
तृष्णा मर गई!
समझो मृग मर गया
मृग मर गया!
शायद तृष्णा जिंदा रहे
लेकिन अंत तो सर्वविदित है
चाहे मृग का हो
या उसकी तृष्णा का…
बड़ी मुश्किल से
चलना सीखा है
कदम दो कदम
मुझे कदम-कदम
सहारा देकर
अपाहिज न बना दो
गिरूंगा, उठूंगा,
दौडूंगा भी एक दिन
मुझे कमजोर ना समझो,
जीतने का हौसला दो…
मैं जब-जब जला
बाती संग जला,
जब खत्म हुआ तेल
बुझना ही पड़ा,
क्या मेरा जीवन यूं ही
अकारथ गया
नहीं मैंने रोशनी भी दी
रास्ता भी दिया…
होश आया तो
बेहोश हो चुका था
लहू का आखिरी कतरा भी
टपक चुका था
उन्हें देखकर
जीने की ललक जागी थी
घर का दरवाजा खुला
तो दीया बुझ चुका था
तू मुझ में नहीं तो किसमें है
तेरा रहमो-करम
तो हर शख्स पे है
मैं भी तेरे जहाँ का इक हिस्सा हूँ
गर तू जर्रे-जर्रे में है
तो मुझमें भी है…
शम्मा के साथ
जब किसी
बेबस की आँख से
आँसू टपकते हैं,
तब हम लोग उसे
कैनवास में उतार कर
मोनालिसा बना देते हैं,
और बाजार में उसकी
अच्छी कीमत
वसूल करते हैं…
कितना अकेला होता हूं
जब तुम्हारे साथ होता हूं,
कितने आंसू पीता हूं
जब मुस्कुराहटे बिखेरता हूं,
गुनहगार कहलाता हूं
जब कोई गुनाह नहीं करता
सरेआम कत्ल होता हूं
जब कातिल बक्श देता हूं…
क्यूँ इन्तज़ार करता है नासमझ
क्यूँ राह तकता है नासमझ
किसी का बेकरारी से
यहाँ कोई नहीं आयेगा
तुझे श्रद्धा सुमन अर्पित करने
कोई नहीं जलायेगा
तेरी याद में
एक टिमटिमाता सा दीया
कोई नहीं बहायेगा
तेरे लिये
चन्द आँसुंओं के कतरे
कोई नहीं ताकेगा
राह तेरी प्यार में
क्यूँ राह तकता है नासमझ
किसी का बेकरारी से
क्यूँ इन्तज़ार करता है नासमझ
किसी का बेकरारी से
यहाँ इन्तज़ार का अन्त
आँखे खुली हुई मौत है…
मुझे अपना जिस्म बनालो
अपने जिस्म का हर निशाँ
मेरे जिस्म पर बना दो
मुझे अपना आईना बना
आँखों में बसालो
गर बन नहीं सकता
तुम्हारा अक्स
मुझे अपनी धड़कन बना
सीने में छुपा लो
गर बन नहीं सकता
तुम्हारी धड़कन
तो मुझे अपनी परछायी बना
कदमों में बिछा दो
गर बन नहीं सकता
तुम्हारी ज़िंदगी का
कोई पहलू
तुम मुझे जीने की
वज़ह बता दो…
नैना बरसत जाए हाए
पिया घर न आए हाए…
कल तक जो मेरा संगी था
आज दूर हो जाए हाए…
इस सावन मैं ऐसे तड़पी
जल बिन मछली माए हाए…
जब से पिया परदेस गयो है
कोयो रंग न भाए हाए…
दिल मेरा रब पत्थर कर दे
क्यों इस को धड़काए हाए…
पल पल क्यों ऐसे लगता है
अब कुण्डी खड़काए हाए…
दिल पागल कैसे समझाऊं…
गया लौट न आए हाए…