दोहे (भाग-1)
1.
दया धर्म का मूल है, करुणा दियो जगाए,
जिस मन करुणा नहीं, नीरा ठूठ रह जाए…..
2.
दया धर्म का मूल है, करुणा दियो जगाए,
जिस मन करुणा भही, धर्मवान बन जाए…
3.
राग-द्वेष भय एक है, सब जग लियो फसाए,
समता मन में कीजिये, जीवन सरल हो जाए…
4.
अंदर तेरे राम है, तुझे नजर ना आए,
मन की गांठे खोल दे, जग रोशन हो जाए…
5.
बाहर अंदर एक है, जान सके तो जान,
कण-कण मे जब रब दिखे, होए बौद्ध का ज्ञान…
6.
मैं मैं करता जग मुआ, मैं ना जाणयो कोएं,
जब मैं मैं जानत भयो, जगत तमाशा होए…
7.
कर्म कांड बहुतो किये, कोइनो काम न आए,
मन की गांठे खोल दे, धर्म मार्ग मिल जाए…
8.
तिनका तिनका जोड़ के गठरिया कई बनाई,
सभी छोड़ के चल दिये, जीवन व्यर्थ गवाई…
9.
चंचल मन बालक भयो, बहुतो नाच नचाए,
जब मन में समता भही, अटल ध्रुव हो जाए…
10.
जो कल था अब है नहीं, जो अब है कल नाहीं,
सब जग ये नश्वर भयो, चिंता करे तू काही…
11.
ज्ञानी ध्यानी बहुतो मिले, अधूरा सबका ज्ञान,
अंतर्मन जानत नहीं, चलत करें वख्यान…
12.
ज्ञानी उसको आखिए, जो धर्म मार्ग दिखलाए,
आप चले उस रह पे, हमें साथ ले जाए…
13.
भगवा चौला पहन के, साधू भया ना कोए,
जो जन, तन-मन साध ले, सो जन साधू होए…
14.
धर्म हमारा एक है, हमने बनाये अनेक,
बाहर ये भिन्न-भिन्न दिखे, अंदर से सब एक…
15.
कुदत कर कानून है, सबके लिए समान,
कर्मो का फल भोगना, विधि का यही विधान
16.
मेरा-मेरा बहु किया, मेरा भैया ना कोए,
पंज तत्त्वो का ये शरीर, पंज तत्त्वो में खोए…
17.
चार किताबें पढ़के तुम,बड़े बने विद्वान
प्रेम मन पढ़यो नाही, चलत करे व्यखान…
18.
मन मोरा बोह लालची, कबहुँ चेन ना पाए,
जितना भी इसको दियो, लालच बढ़ता जाए…
19.
मन मोरा बोह लालची, कबहुँ तृप्त ना होए,
कर्म कांड ऐसन किए, गति राम बिना ना होए…