ज़िन्दगी आराम का  सामान

ज़िन्दगी आराम का  सामान

ज़िन्दगी आराम का सामान बन के रह गयी
आरज़ू इक घर की थी मकान बन  के रह गयी
 
उड़ते थे खुले आसमां जब पँख पखेरू ना थे 
पँख आए तो पिंजरे की उड़ान बन के रह गयी 
 
करनी थी अता नमाज़ हर शक्श के वास्ते 
पढ़ी नमाज़ तो नमाज़ अज़ान बन के रह गयी
 
इक वो भी था ज़माना जब रास्ते कम न थे
आज बंद गली का मकान बन के रह गयी
 
कोशिशें तो बहुत की कि दुनियादारी सीख लें 
ज़िन्दगी है की हमारी नादान बन के रह गयी
 
सपने भी टूटे मगर हमने कभी सौदा ना किया
आज टूटे सपनो की दूकान बन के रह गयी
 
सुने थे किस्से हमने बहुत तेरी हरजाई के
तू तो है कि गूंगे की जुबान बन के रह गयी 
 
हौसले बुलंद इतने कि तारे भी तोड़ लाएगें 
आज बढ़ती उम्र की थकान बन के रह गयी
 
निशानेबाजी इस कदर की आसमां भी भेद दें 
आज बिना तीर के कमान बन के रह गयी
 
ताकत-ए-मुशताक हममें भी गज़ब कि थी
वक़्त ऐसा बदला क़ी बेजान बन के रह गयी
 
कटे हाथ उनके जिन्होंने बनाया ताजमहल
मोहब्बत भी इक जुल्म-ए-दास्तान बन के रह गयी
 
जानते थे ऐ ज़िन्दगी हम तुझे अच्छी तरह
तूने नज़रें यु पलटी कि अनजान बन के रह गयी 
 
ज़िन्दगी हमारी किसी गुलिस्तां से कम ना थी
चमन ऐसा उजड़ा की शमशान बन के रह गयी
 
हम भी किसी सियासत के ‘राजा’ हुआ करते थे 
आज गुज़रे वक़्त के निशान बन के रह गयी 

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