तन्हा-तन्हा सा ये मन क्यों है,
तू है गर साथ, तो ये आँख नम क्यों है।
तन्हा है चाँद और तन्हा तारे,
हर खुशी है, फिर ये ग़म क्यों है।
ना शुकराना किया तूने कभी रब का,
फिर भी उसका इतना करम क्यों है।
ना बाँट सके कभी तुम मेरी तन्हाइयाँ,
करते हो हमसे प्यार — ये भरम क्यों है।
दर्द सहने की अब आदत-सी हो गई है,
फिर ये ज़ख़्मों पे मेरे मरहम क्यों है।
रुस्वा किया तूने हर महफ़िल में हमको,
फिर तेरी निगाहों में ये शरम क्यों है।
हर बादल तो बरसा मेरे आँगन में
फिर ये उजड़ा-उजड़ा-सा चमन क्यों है।
हर लम्हा तो तेरा नसीब है मुझको,
फिर भी दूर मुझसे सनम क्यों है।
ना पहुँचा तूने कभी इक आँसू भी मेरे
फिर ये दामन तेरा इतना नम क्यों है।
कैसे खुश हो अपनों का घर जलाकर
‘राजा’ ये दुनिया इतनी बेरहम क्यों है।
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