क्यों तुम मुझमें अपना ख़ुदा ढूँढते हो
तुम भी न जाने ये क्या ढूँढते हो
मुझको तो अपनी ही ख़बर नहीं आती
तुम मुझमें ख़बर-ए-जहाँ ढूँढते हो
रात भर भटका हूँ बेघर आवारा
तुम मुझमें किसी का मकाँ ढूँढते हो
भटके हो सारी उम्र मुझे ढूँढने में
देखा नहीं बगल और जहाँ ढूँढते हो
धोखे में रखा तुमने उम्र भर सबको
अब कौन-सी कैसी वफ़ा ढूँढते हो
मंज़िल-ए-जहाँ को फ़तेह करके अब
तुम कौन-सा गाँव का मकाँ ढूँढते हो
क़द्र न की तुमने कभी वक़्त की
अब कौन-सा सुहाना समाँ ढूँढते हो
उम्र सारी गुज़री अपने ही रंजो-ग़म में
अब कौन-सा सुकूँ का लम्हा ढूँढते हो
चुप हूँ मैं आजकल, कोई बात नहीं करता
तुम मुझमें अपनी ही ज़ुबाँ ढूँढते हो
भुला दिए मैंने सब गुनाह तुम्हारे
तुम मुझमें मेरी ही ख़ता ढूँढते हो
ढूँढ सको तो ख़ुद को ढूँढ के दिखा दो
रब को न जाने तुम कहाँ ढूँढते हो
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