अश्क़ बहते नहीं अब तेरी बेवफाई में
हम खुश रहते हैं उस रब की रज़ाई में
दूर रहके भी सुकूं तलाश लेते हैं हम
ख़लिश उठती अब नहीं तेरी जुदाई में
यक़ी आता नहीं हमपे तो छोड़ दो हमको
कुछ कहना नहीं हमको अपनी सफाई में
तुम सुकूं से जिओ हम कतरा सुकूं तरसे
हरगिज़ मंज़ूर जीना नहीं यूँ आशनाई में
हम तुम्हें सोचे तुम सोचो किसी और क़ो
ऐसे भी क़ोई जीता है इतनी बेहयाई में
हम भी सोचे क्यूँ अच्छे ना हुए अब तलक
कुछ तो मिलाया होगा तुमने मेरी दवाई में
लेते हैं लोग मज़ा अब मेरी बेबाकी का
नाम जब हम लेते हैं तेरा दुहाई में
जब तलक ताल ना मिले नहीं नाचते हम
उम्र बेताला नाचे हैं हम तेरी तिहाई में
धोखे खाना कोई दुश्वार नहीं हैं हमको
होंगे ना खाक हम अब तेरी हरजाई में
लुभाता नहीं अब हमें दिलकशो का हज़ूम
कुछ नहीं रखा पत्थरों से दिल लगाई में
जागने से रात भर नहीं हैं गुरेज हमको
करते हैं नींद हम पूरी इक जम्हाई में
दिखता नहीं है अब किसी को ज़ख्म हमारा
सब दफना दिए हैं दिल की गहराई में
मुफ़लिसी मैं क्यूँ मेरे दुश्मन जिए
‘राजा’ तो जियेगा अब अपनी शहनशाई में
*ख़लिश- चुभन। कसक।
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