कोई बस्ती तो होगी, जहाँ लोग दींवाने होंगे
मूहब्बते फ़िज़ा में होगी, सब मस्ताने होंगे
ना वस्ल-ए-खौफ़होगा, ना दूरिया कोई होंगी
रोज दीदार-ए-यार होगा रोज अफ़साने होंगे
ना कोई खुदी में होगा, ना याद उनकी आयेगी
ना दर्द दबाने होंगे, ना आंसू बहाने होंगे
भँवरे गुलो पे होंगे, और वो हमारे पास
शाँम ढले घर जाने के, ना कोई बहाने होंगे
ना दर्दे ज़ँफा होगा, ना शामे गम होगा
ना कोई करार होगा, ना वादे निभाने होंगे
हर इक पर चड़ी होगी, मुहब्बत की खुमारी
कुछ ऐसा करना होगा सब, दर्द भुलाने होंगे
दीवानो की ऐसी बस्ती, कभी तो बसेगी
अंज़ानो की दुनीया मे, कुछ दोस्त बनाने होंगे
**ज़ँफा- अत्याचार ज़ुल्म अन्याय पूर्ण कार्य।
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