अश्क बहते हैं सारी रात कि तुम आ जाओ
आँसुंओं की है बरसात कि तुम आ जाओ
ख़यालों की स्याही से मैं लिखूं खत तुझको
कितना तुझे मैं करूं याद कि तुम आ जाओ
आज तन्हा शाम ये मेरा दम ले लेगी
दीवारों से करूं बात कि तुम आ जाओ
गूंजने लगी है अब कानो में शहनाइयां
अरमानों की चली बारात कि तुम आ जाओ
गुलों पे किसके हैं अश्क़ यूँ ही बिखरे हुए
चाँद रोया है सारी रात कि तुम आ जाओ
कब होगा दीदार-ए-यार मयस्सर मुझको
आज बस में नहीं जज़्बात कि तुम आ जाओ
दरमियाँ हमारे इक उम्र का फासला है
मौला तू दिखा करामात कि तुम आ जाओ
आखिरी हिचकी कहीं आज़ आ ही न जाये
बिगड़ते जाते हैं हालात कि तुम आ जाओ
*सुर्ख़- लाल (जैसे—सुर्ख़ गाल)।
*मयस्सर- मिलता या मिला हुआ । प्राप्त । उपलब्ध
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