मेरा कत्ल करवाने की ज़रूरत क्या थी
इतनी ज़हमत उठाने की ज़रूरत क्या थी
हम ख़ुद ही अपना सर सूली पे रख देते
इल्जाम अपने सर लगाने की ज़रूरत क्या थी
कत्ल हम इन निगाहों से भी हो जाते
तो फिर ये खंजर उठाने की जरूरत क्या थी
तुम जानते थे मोम का हम दिल रखते हैं
हाथ मिलाते दबाने की तुम्हे ज़रूरत क्या थी
हम किनारों पे डूबने का रखते हैं हुनर
मझधार कश्ती ले जाने की ज़रूरत क्या थी
जब समझा नहीं सकते अपनी तुम दलीलों से
हमे बार-बार समझाने की ज़रूरत क्या थी
मुहब्बत-ए-इल्ज़ाम तुम्हारा हमें तो कबूल था
फतवा-ए-मौत सुनाने की ज़रूरत क्या थी
सुने थे किस्से हमने तेरी हरजाई के
सब हम हीं पर आज़माने की ज़रूरत क्या थी
दो कदम भी साथ चले न तुम जिन राहों पे
हमें राह वो दिखाने की ज़रूरत क्या थी
मिलता अगर साथ तुम्हारा हमें तन्हाईयों मे
महफ़िल ये हमको सजाने की ज़रूरत क्या थी
न था मैं गर कभी तुम्हारे ख्वाबों- ख़यालों में
फिर इश्क हमसे जताने की ज़रूरत क्या थी
काश! मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ होता
तो ज़ख्म ये हमें छुपाने की ज़रूरत क्या थी
मिलती हमें गर तुम्हारी जुल्फों की छाँव
हमे बेवक्त मुरझाने की ज़रूरत क्या थी
बढाने ही थे गर अंधेरे हमारी ज़िन्दगी में
चिराग-ए-उम्मीदां जलाने की ज़रूरत क्या थी
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