वो न देखते, न मुस्कुराते, न बात करते हैं
मोहब्बत हमसे करते हैं, अजी क्या बात करते हैं
भरी महफ़िल में हमसे नज़रें चुराते हैं
मगर छुपके निगाहों से इशारात करते हैं
ये उनकी बेरुख़ी है, या फिर बेख़्याली है
ख़ुद से अक्सर हम यही सवालात करते हैं
कभी तन्हाई में जो पूछूँ बेरुख़ी का सबब
भरके आँखों में बादल वो बरसात करते हैं
क़ातिल निगाहों से कितने कत्ल हो गए
देखें कब हमसे वो निगाह-ए-चार करते हैं
बहारें बीत गईं कितनी, ये आस लगाए हैं
शायद इस बहार हमसे मुलाक़ात करते हैं
हया बहुत है उनमें, ख़ुद न बोलेंगे कभी
देखें कब वो मोहब्बत-ए-इज़हार करते हैं
कब होगा फ़ैसला ‘राजा’ की जुदाई का
देखें कब मौला क़यामत की रात करते हैं
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