कुछ गम नहीं जो मौत गले लगा ले
गर इक घड़ी भी मुझे अपना बना ले
जल सकता हूँ मैं जिंदा भी चिता पे
गर तू मेरी राख मांग में सजा ले
दफ़्न हो जाऊं उफ़ तक न निकलेगी
गर तू मेरी कब्र आंगन में बना ले
रात भर दीये की लौ पे तप सकता हूँ
गर तू काजल बना आँखों में बसा ले
दोनों जहां की बदनसीबी अपने नाम लिख लूं
गर मोर पंख बन मुझे तू लेखनी बना ले
‘राजा’ से रंक बनने में भी रंज नहीं
गर ये रंक तुझको ही भिक्षा में पा ले
**रंक- ग़रीब दरिद्र।
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