बेटी की पुकार

बेटी की पुकार

क्यूँ हिला देते हो
मेरी अंतरात्मा को झिंझोड़कर
क्यूँ सजा देते हो
मेरे रिसते ज़ख्मो को निचोड़कर
क्यूँ प्रेरित करते हो
मुझे हर पल मरने के लिए
क्यूँ जलाते हो मेरी होली
मौसम बदलने के लिए
क्यूँ सुनाते हो ताने
मुझे बचपन से जवानी तक
क्यूँ उड़ा देते हो
मेरी हसीं के भी रंग
क्यूँ नहीं देखने देते
भोर के सुनहरे रंग
क्यूँ नहीं दौड़ने देते
खुले आसमां के संग
क्यूँ दबाते हो
मेरी कुंवारी उमंगो की तरंग
क्यूँ लगाते हो नुमाइश मेरी
चाय के प्यालों के संग
क्यूँ समझते हो मुझे
पराया धन- पराया धन
क्यूँ भेज देते हो
फिर किसी दुहजु के संग

क्यूँ करते हो मेरा अंत
अनचाही अग्नि के संग

 

मैं बेटी ही सही
हूँ तो तुम्हारे ही जिस्म का हिस्सा
जिसे जितना ज़ख़्मी करोगे
उतना ही दर्द पाओगे
मैं मर गयी तो
इस धरा पर
इन्सानियत तो क्या
इंसान भी ना पाओगे

 

हँसने दो मुझे, मुस्कुराने दो
अपनी ही
एक प्यारी सी दुनिया बसाने दो
जिसमे मैं एक गहरी सांस ले सकूँ
अपने अरमानों के संग जी सकूँ
ज़िन्दगी भर कुल्लाचें भर सकूँ
और अपने महबूब की बाहों मे मर सकूँ

 

मुझे पढ़ाओ तो सही
मैं भी जहाज चला सकती हूँ
चाँद पर जा सकती हूँ
खेल में मेडल ला सकती हूँ
हर क्षेत्र में नाम कमा सकती हूँ
तुम्हें गौरव दिला सकती हूँ
देश का नाम बड़ा सकती हूँ
देश के लिए शीश कटा सकती हूँ

 

मुझे भी जिन्दा रहने का हक़ है
मुझे कोख में मत मारो
मुझे दूध में मत डुबाओ
मुझे दहेज़ के नाम पे मत जलाओ
मैं तुम्हारी ही बेटी हूँ…

  

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ

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