शाम-ए-सफर

शाम-ए-सफर में गर हमनशीं का साया भी हो

ज़िन्दगी को यूँ सफ़र में ही गुज़ार दूँ मैं

 

किसे फ़िक़्र यहाँ की कि मंज़िल मिले ना मिले

ये चंद लम्हें जो तेरे ही संग गुज़ार दूँ मैं

 

दोनों जहां की जन्नत तेरे कदमों में है

ये जन्नत पे वो हर जन्नत को निसार दूँ मैं

 

जो तू मुझे भूल कर के भी भुला ना सके

तुझे तो आज इतना प्यार दे दूँ मैं

 

हर अल्फ़ाज़ तेरा इक खुदा का नगमा है

इन नगमों पे तो  ख़ुदाई को भी वार दूँ मैं

 

तेरा दीदार करमगर हो ना हो ‘राजा’

तेरा तसव्वुर ही साँसो में उतार दूँ मैं

 

*हमनशीं- साथ रहने वाला साथी

*निसार- बलि क़ुर्बान। निछावर।

G041

Comments

No comments yet. Why don’t you start the discussion?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *