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अमर मंथन

जब तुमने मुझे
खो देने के डर से
अपनी बाहों में जकड़ लिया था
तब मैंने स्वयं को
बूंद बूंद पिघलता
सागर अनुभव किया था

 

जब एक बेरहम ख़याल
तुम्हें डस गया था
जिसका जहर तुमने
अपनी आँखों में उतार कर
उन्हें नशीली बना लिया था
तब मैंने स्वयं को
एक जहरीला भुजंग
अनुभव किया था

 

जब तुम्हारे नाजुक हाथों में
मुझ तक पहुंचने के लिए
मेरे जिस्म पर से
पगडंडी बनाते-बनाते
फफोले पड़ गए थे
तब मैंने स्वयं को
एक पथरीला पहाड़
अनुभव किया था

 

जब तुम्हारा जिस्म
मुझमे उगे

जहरीले कांटो वाले
केक्ट्स उखाड़ते-उखाड़ते
लहूलुहान हो गया था
तब मेने स्वयं को
दानव अनुभव किया था

 

होनी तो होने का बहाना ढूंढती है
हुआ वही जो होना था
तुम्हारा नागिन बाँहो में
मुझ पथरीले पहाड़ को
जकड़कर मथना
और इस मन्थन से निकले विष को
अपनी आँखों में ही रोक कर
उन्हें नशीली बना लेना
और अमृत का घड़ा
राहु-केतू की नजर बचाकर
मुझे थमा देना
एक शाश्वत सत्य है
नहीं तो
ना जाने हम कितना भटकते
बूँद-बूँद
अमृत को तरसते
अब तो घड़ा भर अमृत
हमारे अधरों से होता हुआ
सीनों में उतर चुका है
अब हम अमर हैं…

K009

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